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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

वहम

बहुत सर्द थी कल की रात...
ख़्यालात भी रजाई में जैसे सिकुड़ से रहें थे...
कोई दस्तक सी सुनाई दी थी ज़हन के दरवाजे पर..
क्या वो तुम थी... शायद नहीं 
वहम  होगा ...हाँ वही होगा... 
फिर आया होगा ठहरने एक रात मेरे छोटे से घर में...
दोस्त है मेरा , पुराना दोस्त...
मिला था मुझे पहली दफा उस रोज़ जब तुम्हे देखा था पहली बार 
नीम वाले नुक्कड़ पर नजरे झुकाये गुजरते हुए... 
तुम्हे याद भी नहीं होगा शायद, पर मैं रोज उस लम्हे को कई बार जीता हूँ...
खैर उस लम्हे से मेरा और इस हसीं वहम  का याराना है...
कभी भी, कहीं भी चला आता है कम्ब्खत ...
ना इसे वक़्त का तकाज़ा है , ना जगह की परवाह...
ना मौसम से रुकता है ना आँधियों ,तूफानों से डरता है...
कभी-कभी सोचता हूँ भाग जाऊँ कहीं इससे दूर...बहुत दूर...
फिर दूसरे ही पल ये भी ख्याल आता है कि माना चलो झूठा है ,जालिम ही सही...
जैसा भी है मेरा अपना तो है...बिल्कुल तुम्हारी तरह...

-हिमांशु राजपूत